शीतल बहुखण्डी
उत्तराखण्ड भारत का एक खूबसूरत राज्य हैं जिसे देवभूमि या देवों की भूमि के रूप में जाना जाता हैं। परन्तु क्या आपको पता है कि हमारे देश का नाम 'भारत' कैसे पड़ा। इसके पीछे का क्या इतिहास है। सम्राट भरत की जन्मस्थली कहा है? तो आईये आज हम आपको इस रोचक विषय के बारे में इस लेख के माध्यम से अवगत कराते हैं।
उत्तराखण्ड के प्रत्येक धार्मिक स्थल और मंदिर का अपना एक इतिहास है। ऐसे ही "गढ़वाल के द्वार" नाम से प्रसिद्ध कोटद्वार की एतिहासिक धरोहर कण्वाश्रम का भी अपना एक इतिहास है। जिस का पुराणों में भी विस्तृत उल्लेख मिलता है।
कण्वाश्रम का इतिहास
कण्वाश्रम उत्तराखण्ड स्थित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थान है। जिसे मालिनी नदी के किनारे बनाया गया था। ऐसी नदी जो अब भी हिमालय के शिवालिक पर्वतश्रंखला के बीच से धीरे धीरे बहती हुई रावली में गंगा से मिल जाती है। यह गढ़वाल जनपद में कोटद्वार से 14 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। कुछ सन्दर्भों के अनुसार कण्वाश्रम एक काल में प्रमुख विश्वविद्यालय था जहां हज़ारों की संख्या में विद्यार्थी कण्व ऋषि एवं उनके शिष्य ऋषियों से विद्या अर्जित करने दूर-दूर से आते थे।जिसमे सिर्फ उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी। इसमें सिर्फ वो विद्यार्थी प्रवेश ले सकते थे, जो की सामान्य विद्यापीठ का पाठ्यक्रम पूरा कर और अधिक अधयन्न करना चाहते थे। क्योंकि कण्वाश्रम चारों वेदों, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिक्षा तथा कर्मकाण्ड इन छ: वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध था। इस आश्रम में रहने वाले योगी अकेली जगह में कुटिया या गुफा बनाकर उसके अन्दर रहते थे। यह स्थान एक तरह से ऋषी मुनियों की तप स्थली भी था। जहां वह साधना मे लीन होकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए कठोर तप किया करते थे।
महर्षि कण्व, विश्वामित्र, दुर्वासा आदि की तपोस्थली के साथ ही यह स्थान मेनका-विश्वामित्र और शकुंतला व राजा दुष्यंत की प्रणय स्थली भी रहा है। यही वह स्थान है, जहां शकुंतला-दुष्यंत के तेजस्वी पुत्र भरत ने जन्म लिया था। वही भरत जिनके नाम से देश का नाम भारत पड़ा।
सम्राट भरत के जन्मस्थल की कथा
राजा भरत दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र थे। कथाओं अनुसार एक बार ऋषि विश्वामित्र की कठोर तपस्या से स्वर्ग के राजा इंद्र अत्यंत विचलित हो गए थे। उनकी तपस्या को भंग करने के लिए इंद्र ने स्वर्ग की अप्रतिम सुन्दरी, अप्सरा मेनका को धरती पर भेजा। जहां मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग कर उन्हें अपने मोहपाश में बांधने में सफल हुई। फिर विश्वमित्र व मेनका अप्सरा के प्रणय संबंधों से उत्पन्न कन्या शकुंतला का जन्म हुआ। जिसे मेनका एक आश्रम के समीप जंगल में छोड़ वापस स्वर्ग चली गई थी।
तपस्या में लीन महर्षि कण्व ने जब बच्चे के रोने की आवाज सुनी, तो वे वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर नवजात कन्या शाकुंत पक्षियों से घिरी है। महर्षि कण्व बच्ची को आश्रम ले आए व उसको शकुंतला नाम दिया और उसका लालन-पालन किया। एक दिन हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत कण्वाश्रम के आसपास के वन में शिकार करते हुए भटक गए और कण्वाश्रम जा पहुंचे। वहां उनकी भेंट शकुंतला से हुई। उस वक्त कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा पर थे। शकुन्तला ने राजा दुष्यंत की आवभगत की। वे उसके संस्कारों व सुंदरता से प्रभावित हुए और दोनों में प्रेम उत्पन्न हुआ, और उन्होंने शकुंतला से गंधर्व विवाह किया। दुष्यंत ने वापिस जाते हुए शकुन्तला को अंगूठी पहनाई और कहा कि हस्तिनापुर आकर मिले।
वहीं एक दिन कण्व ऋषि के आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। उस समय महाराजा दुष्यंत के यादों में खोई शकुंतला को दुर्वासा ऋषि की आवाज सुनाई नहीं दी। अपने क्रोध के लिए विख्यात ऋषि को लगा कि यह उनका अपमान है। उन्होंने उसी क्षणक शकुंतला को शाप दे दिया, ‘जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जाएगा।’ यह सुनकर शकुंतला का ध्यान टूटा तो उन्होंने ऋषि से क्षमा मांगी। ऋषि ने कहा जिनकी याद में तुम खोई थी उनका कोई प्रतीक चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देखकर उन्हें तेरी स्मृति हो जाएगी।’ यह कहकर दुर्वासा वहां से चले गए।
कुछ दिनों बाद जब कण्व ऋषि तीर्थयात्रा से लौटे तो शकुंतला ने उन्हें अपने गंधर्व विवाह के बारे में बताया। यह जानकर कण्व ऋषि ने शकुंतला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। उधर शकुंतला राजा दुष्यंत के विरह में व्याकुल थी। दुष्यंत ने वापिस जाते हुए शकुन्तला को जो अंगूठी पहनाई थी वह भी नदी में गिर गई और उसे मछली निगल गई। कण्व ऋषि के शिष्यों के साथ शकुंतला महाराज दुष्यंत के दरबार में पहुंचीं। तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण दुष्यंत उन्हें भूल चुके थे उन्हें साथ बिताए पल का कुछ भी याद नहीं था और दुष्यंत ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया। यह सुन कर शकुंतला वापस लौट गयी। इस दौरान शकुंतला ने एक अत्यंत सुंदर व तेजस्वी बालक को जन्म दिया। शकुंतला-दुष्यंत के तेजस्वी पुत्र का नाम भरत रखा गया। इस वीर बालक का बचपन जंगल में ही बीता और “कण्वाश्रम” में सिंह शावकों से खेल कर एवं ज्ञानार्जन में यह बड़ा हुआ।
जिस मछली ने शकुंतला की अंगूठी को निगला था, एक दिन वह मछली मछुआरे के जाल में फंस गई। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट से अंगूठी निकली। मछुआरे ने देखा कि यह अंगूठी तो राजमुद्रिका है। इसलिए उसे लेकर महाराज को भेंट करने राजमहल में पहुंच गया। अंगूठी को देखते ही महाराज दुष्यंत को सब कुछ याद आ गया और तब उन्हें अपने किए पर पच्यताप होने लगा और उन्होंने सत्कार पूर्वक शकुंतला और अपने पुत्र भरत को अपनाया, आगे चलकर वही भरत चक्रवर्ती के नाम से हस्तिनापुर के राजा बने आज हमारे देश का नाम भारत उन्हीं के नाम की ऊपर रखा गया है।
वर्तमान में कण्वाश्रम
मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम, जो किसी काल में एक समृद्ध गुरुकुल था, आज वह एक छोटा सा आश्रम है। इस नवीन आश्रम में पांच प्रतिमाएं हैं – कण्व ऋषि, कश्यप ऋषि, शकुंतला, दुष्यंत एवं पांचवी प्रतिमा भरत की है जिन्हें शेर के दांत गिनते दिखाया गया है। कण्वाश्रम के आसपास के वनों में हिरण, तेंदुए, चीतल, बन्दर, लंगूर इत्यादि स्वच्छंद घूमते दिखाई देते हैं। हाथियों के झुण्ड भी नदी के समीप देखे जा सकते हैं। विभिन्न पक्षी भी यहां उड़ते दिखाई देते हैं, कदाचित कण्व ऋषि ने शकुंतला का नामकरण इन्हीं पक्षियों पर किया था क्योंकि वो पक्षियों के बीच पायी गयी थी व उन्हीं के बीच जीवन बिताते हुए बड़ी हुई।
खास बात यह है कि यहां हर वर्ष 'बसंत पंचमी' के अवसर पर कण्वाश्रम में तीन दिन तक मेला चलता है। महाकवि कालिदास द्वारा रचित 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' में कण्वाश्रम का जिस तरह से जिक्र मिलता है, वे स्थल आज भी वैसे ही देखे जा सकते हैं।