उत्तर नारी डेस्क
उत्तराखण्ड राज्य को अलग बनाने के लिए सर्वप्रथम मांग 1897 में इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया के समक्ष रखी गई थी। इसके बाद हर दशक में प्रयास होते रहे। 1916 में उत्तराखण्ड की प्रथम संस्था-कुमाऊं परिषद के गठन के रूप में दूूसरा प्रयास हुआ। इसके बाद साल 1923 में जब उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत का हिस्सा हुआ करता था उस दौरान संयुक्त प्रांत के राज्यपाल को भी अलग पहाड़ी प्रदेश बनाने की मांग को लेकर ज्ञापन भेजा गया। जिससे कि पहाड़ की आवाज को सबके सामने रखा जाए। फिर 1928 में कांग्रेस के मंच पर अलग पहाड़ी राज्य बनने की मांग रखी गयी। जिसका समर्थन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी किया था।
1929 को जब कई लोगों ने तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर से भेंट कर ज्ञापन सोंपा और कुमाऊं के प्राचीन समय से एक पृथक इकाई होने और उसे विशेषाधिकार मिले होने का हवाला देते हुए पृथक राजनीतिक इकाई के रूप में मान्यता देने, ब्रिटिश संसद के लिए कुमाउनी प्रतिनिधियों को सम्मिलित कर उन्हें अलग संविधान देने के लिए एक समिति का गठन करने आदि की मांगें कीं थी। तो, इस पर गवर्नर ने उन्हें साइमन कमीशन के समक्ष अपना पक्ष रखने की सलाह दी। आगे 1938 में प्रदेश के गढ़वाल मंडल की ओर के बुद्धिजीवियों की ओर से भी यह मांग उठनी शुरू हुई। स्थानीय जनता की मांग को देखकर इस पर जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, कि ‘इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अधिकार मिलना चाहिए।
इस दौरान 1946 को हल्द्वानी में कांग्रेस का सम्मेलन भी आयोजित हुआ, जिसके अध्यक्ष बद्रीदत्त पांडे थे उन्होंने कुमांऊ (पर्वतीय भू-भाग) को अलग करने की मांग को जोर दिया। फिर 1948 में गंगादत्त पांडे द्वारा अपने पत्रों में उत्तराखण्ड शब्द का प्रयोग किया गया। उत्तराखण्ड शब्द का प्रयोग करने वाले ये प्रथम व्यक्ति थे। 1948 में बद्रीदत्त पांडे द्वारा आयोग के सम्मुख पृथक राज्य की मांग को रखा गया था जिसे अस्वीकार किया गया। इसके साथ ही 1950 में पहाड़ी क्षेत्र एक अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर हिमाचल प्रदेश के साथ मिलकर 'पर्वतीय जन विकास समिति' के माध्यम से संघर्ष शुरू हुआ। फिर कॉमरेड पीसी जोशी ने 1952 में भारत सरकार को पृथक पर्वतीय राज्य के गठन के लिए एक ज्ञापन भेजकर यह मांग प्रमुखता से उठाई। जिससे यह मांग मुखर होने लगी थी।
पेशावर कांड के नायक और स्वतंत्रता सेनानी चंद्र सिह गढ़वाली ने भी PM जवाहर लाल नेहरू को राज्य की मांग को लेकर ज्ञापन दिया था। फिर 1955 में पीसी कामरेड जोशी द्वारा पर्वतीय राज्य की मांग के लिए सर्वदलीय संघर्ष समिति का गठन किया। 1967 में कांग्रेस का सम्मेलन रामनगर में आयोजित हुआ जिसमें द्वारिका प्रसाद उनियाल ने उत्तराखण्ड को पृथक क्षेत्र के रूप में मान्यता देने की बात कही, तथा इस उद्देश्य का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया। जिस पर 1969 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन केंद्र सरकार द्वारा राज्य विकास के लिए किया गया। इस बीच 1970 में पीसी कामरेड जोशी द्वारा भी राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया गया व राज्य मांग को पुनः उठाया गया। जिस को लेकर स्कूटर रैली निकाली गई व प्रदर्शन किये गए।
फिर 24-25 जुलाई 1979 मसूरी में पर्वतीयजन विकास सम्मेलन का आयोजन किया गया। उस सम्मेलन की अध्यक्षता द्वारिका प्रसाद उनियाल ने की। इस सम्मेलन में उत्तराखण्ड राज्य के लिए एक क्षेत्रीय दल का गठन किया गया और उत्तराखण्ड क्रान्ति दल की स्थापना हुई और इस दल ने उत्तराखण्ड राज्य की मांग को धार दी।
1980 में जन जागरण अभियान की शुरुआत कर उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने इस मांग को जन-जन तक पहुंचाया। 90 का दशक आते-आते उत्तराखण्ड राज्य की मांग अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। "कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखण्ड बनाएंगे" और "आज दो अभी दो उत्तराखण्ड राज्य दो" जैसे नारे गूंज रहे थे। 90 के दशक में दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की राजनीति में लोकदल के विधायक के रूप में कदम रखने वाले मुलायम सिंह यादव अपनी अलग पार्टी स्थापित करने में लगे हुए थे। 04 अक्टूबर 1992 को मुलायम ने समाजवादी पार्टी की स्थापना की।
04 दिसंबर 1993 को मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। मुलायम पहाड़ के लोगों की मांग पर कह चुके थे- “मैं उनकी परवाह क्यों करूं, कौन सा उन्होंने मुझे वोट दिया था।” शुरू से ही मुलायम का रवैया पहाड़ और पहाड़ के लोगों को नज़रअंदाज़ करने वाला रहा। इस बात ने पहाड़ के लोगों में उत्तराखण्ड राज्य की मांग को तीव्र कर दिया। जिस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 'कौशिक समिति का गठन किया। इसके बाद इन संघर्षों का फल 9 नवंबर सन 2000 में मिला जब तात्कालिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई ने पृथक राज्य उत्तराखण्ड की घोषणा की।
उत्तराखण्ड को पृथक राज्य बनाने में एक लंबा संघर्ष चला। जिसके लिए कई आंदोलन किये गये, कई मार्च निकाले गये। पृथक पहाड़ी प्रदेश के लिए 42 आंदोलनकारियों को शहादत भी देनी पड़ी और अनगिनत आंदोलनकारी घायल हुए। उस समय पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर लोगों में इतना जुनून था कि महिलाएं, बुजुर्ग यहां तक की स्कूली बच्चों तक ने आंदोलन में भाग लिया था।