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उत्तराखण्ड : चिपको आंदोलन के 52 साल हुए पूरे, पढ़े आंदोलन के बारे में

उत्तर नारी डेस्क 

आज पर्यावरण की रक्षा के लिए सबसे बड़े और अनोखे 'चिपको आंदोलन' को 52 वर्ष पूर्ण हो गए है। आज के ही दिन 1974 में चमोली की रैणी गाँव की महिलाओं ने गौरा देवी जी के नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए अन्य महिलाओं के साथ ये आंदोलन प्रारंभ किया था। इस आंदोलन में वनों की कटाई को रोकने के लिए गांव के पुरुष और महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर अपनी जान दांव पर लगा दी थी। चिपको आंदोलन आज भी विश्वभर को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित करता है और सदियों तक प्रेरित करता रहेगा। 

बता दें, यह आन्दोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में 26 मार्च सन 1973 में प्रारम्भ हुआ। एक दशक के अन्दर यह पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में फैल गया था। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात यह थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन की शुरुवात 1970 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेत्रत्व में हुई थी। इस आंदोलन में पेड़ों को काटने से बचने के लिए गांव के लोग पेड़ से चिपक जाते थे, और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने दिया जाता था। इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था।


कैसे हुई चिपको आन्दोलन की शुरुआत:

गौरा देवी का जन्म सन 1925 में उत्तराखण्ड के लाता गाँव के मरछिया परिवार में नारायण सिंह के घर में हुआ था। उस समय बाल विवाह का ज्यादा प्रचलन था। इस कारण 12 वर्ष की छोटी उम्र में गौरा देवी का विवाह रैंणी गाँव के मेहरबान सिंह के साथ हुआ। यहीं से गौरा देवी के संघर्ष की शुरुआत होने लगी। जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र बेटा चन्द्रसिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया। जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है। गौरा देवी ने भी संकट झेले। धैर्य की प्रतिपूर्ति गौरा देवी बडे संघर्ष से काम करने लगी। सुबह जंगल जाना, पशुओं के लिए चारा पत्ती, रसोई के लिए सूखी लकड़ियाँ लाना आदि उनकी दिनचर्या बन गई। इस प्रकार के क्रियाकलापों से गौरा देवी का ज॔गल के प्रति प्रेम हो गया।

सन् 1970 में अलकनंदा नदी में भयंकर बाढ़ आ गई। इस बाढ़ से गाँव के गाँव निर्जन हो गये। अपार जन धन की हानि हुई। इस आपदा ने गौरा देवी के हृदय को झकझोर दिया। गौरा देवी ने चिंतन मनन करके यह निष्कर्ष निकाला कि हमें पहाड़ की सुरक्षा करना है, तो जंगलों को बचाना होगा। यद्यपि गौरा देवी पढी लिखी नहीं थी, परन्तु फिर भी उन्हें प्राचीन वेद पुराण, रामायण, भागवत गीता, महाभारत आदि की अच्छी जानकारी थी। गौरा देवी जंगलों को अपना मायका मानती थी। गौरा देवी का कहना था कि हमें यहाँ से तरह तरह की जडी बूटियाँ मिलती हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी का अस्तित्व वनों पर ही निर्भर करता है। यदि हम पेड़ पौधे काटेगें तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा और बाढ़ आने की संभावना बढ जायेगी।

गौरा देवी ने वृक्ष बचाने का संकल्प लिया। गांव में महिलाओं और युवाओं को जागरूक करने लगी। जब भी समय मिलता वृक्षारोपण का कार्य करती रहती। धीरे-धीरे गौरा देवी की लोकप्रियता बढने लगी। गांव में महिला मंगल दल का गठन किया गया। गौरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्ष बन गई। अध्यक्ष बनने पर गौरा देवी समय-समय पर सभाओं का भी आयोजन करने लगी। इससे गाँव तथा सम्पूर्ण क्षेत्र में एक नई जन जागरूकता आ गई। लोगों का वृक्षों के प्रति प्रेम होने लगा। एक बार गौरा देवी के गाँव में एक घटना घटित हुई। हरे भरे वृक्षों को काटने की बोली लगने लगी। ठेकेदार गौरा देवी के व्यक्तित्व से परिचित था। इस डर से उसने योजना के अनुसार काम करना शुरू किया। गांव के सभी पुरूषों को आर्थिक सहायता के नाम से चमोली में आमंत्रित किया गया। ठेकेदार के प्रलोभन पर सभी पुरूष चमोली के लिए रवाना हो गये। उधर ठेकेदार के लोग मौके का लाभ उठाते हुए कुल्हाड़ी लेकर गांव के जंगलों में कटान करने लगे। गौरा देवी ने जब यह दृश्य देखा तो वह आग बबूला हो गई। तुरन्त गाँव के महिलाओं तथा बच्चों को लेकर जंगल की ओर चल दी। ठेकेदार के लोगों का अपमान जनक व्यवहार करने पर भी गौरा देवी ने जब हार नहीं मानी तो उन्होंने गौरा देवी पर बन्दूक तान दी। बन्दूक तानने पर गौरा देवी वृक्षों पर चिपक गई। गौरा देवी को देखकर गाँव के बच्चे और महिलाएं भी इसी तरह से पेड़ो पर चिपक गये। गौरा देवी ने क्रांतिकारी आवाज में कहा हमारे लिए इन वृक्षों का महत्व जीवन से भी बढकर है। इन वृक्षों में हमारे प्राण बसते हैं। ये वन हमारे जीवन की आधार शिला है। इन्हें काटने से पहले तुम्हें कुल्हाड़ी हमारे ऊपर चलानी होगी। हम किसी भी स्थिति में पीछे हटने वालों में से नहीं हैं।

गौरा देवी के इस अलौकिक तेज के आगे ठेकेदार के आदमियों ने घुटने टेक दिए, और वे जंगल से भागने के लिए मजबूर हो गये। यह घटना आग की तरह चारों ओर फैल गई और राष्ट्रीय स्तर का समाचार बन गई। समाचार पत्र, रेडियो, दूरदर्शन सभी में यह समाचार सुर्खियों में चलने लगा। भारत सरकार ने जांच समिति बिठाई। जिसमें निर्णय गाँव वालों के पक्ष में लिया गया। इससे गाँव का जंगल बच गया। गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने वृक्षों पर चिपककर वृक्षों की जो रक्षा की वह घटना दुनियाभर में पर्यावरण चेतना के नवजागरण का सूत्रपात कर गई। और इस तरह पेड़ों पर चिपककर उनकी रक्षा करते हुए पर्यावरण को बचाने की यह मुहिम चिपको आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध होकर इतिहास की महत्वपूर्ण घटना बन गई। साथ ही पर्यावरण के क्षेत्र में गौरा देवी हमेशा के लिए हिमालय की पुत्री के नाम से प्रसिद्ध हो गई। इसी के परिणाम स्वरुप सरकार ने ठेका प्रणाली समाप्त कर दी तथा वन निगम की स्थापना की। 66 वर्ष की उम्र में 04 जुलाई 1991 को हिमालय पुत्री गौरा देवी का निधन हो गया।


चिपको आंदोलन के ये थे गीत--

चिपका डाल्युं पर न कटण द्यावा,

पहाड़ों की संपति अब न लुटण द्यावा।

मालदार ठेकेदार दूर भगोला, 

छोटा- मोटा उद्योग घर मा लगोला।

हर्यां डाला कटेला दु:ख आली भारी,

रोखड व्हे जाली जिमी-भूमि सारी। 

सूखी जाला धारा, मंगरा, गाड-गधेरा, 

कख बीटीन ल्योला गोर भेंस्यूं कु चारू। 

चल बैंणी डाली बचौला, ठेकेदार मालदार दूर भगोला..।

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