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कोटद्वार : दूसरों के अरमानों को उड़ान देने वाले चाँद मौला बख्श की सफलता की कहानी

यशोधर डबराल 



...............चाँद मौला बख्श...............


किसी शायर ने लिखा है कि....

 

हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते,

हर तकलीफ़ में ताक़त की दवा देते हैं.


जी हाँ दोस्तों...मुसीबतों के दौर में हिम्मत और हौसला बहुत बड़ा मायने रखते हैं. हमारे आसपास कई लोग ऐसे हैं जो समाज को मार्गदर्शन देने के लिए अपने किरदार को एक आईना बना डालते हैं. आज हम एक ऐसे ही किरदार को आपसे रूबरू करवाएंगे. जिनका नाम है चाँद मौला बख्श.... 


चाँद मौला बख्श को उनके जानने और चाहने वालों के बीच चाँद भाई के नाम से जाना जाता है. चाँद भाई से जब उनके जन्म और जन्म स्थान की बात की जाती है तो वे बड़े सहज भाव से अपनी पीढ़ियों का हिसाब-किताब बताने लगते हैं. वे बताते हैं कि कोटद्वार उनका ननिहाल हुआ करता था. उनके पिताजी भी वहीं जाकर बस गये थे. इस प्रकार चाँद मौला बख्श का बचपन उनकी ननिहाल में ही गुजरा. पहले कोटद्वार के कान्वेंट स्कूल और बाद में नजीबाबाद के सेंटमेरी स्कूल से अपनी पढाई करते हुए उनका सपना था कि वे बड़ा होकर देश की सेवा करेंगे. 


कोटद्वार के झंडा चौक में सन् 1885 से उनके नाना जी का कपडे प्रेस करने का एक छोटा सा खोखा हुआ करता था. बाद में उनके पिता ने भी इसी की आमदनी से अपने परिवार का पालन पोषण शुरू किया. लेकिन परिवार की बढती जिम्मेदारियां इस आमदनी में नहीं सिमट पा रहीं थी. 


जब चाँद मौला बख्श ने अपने बचपन में पिता के इस आर्थिक संघर्ष को देखा तो उन्होंने विचार बनाया कि भारतीय सेना या पुलिस में भर्ती हुआ जाए या फिर वकालत कर आमदनी के ज़रिये को पैदा किया जाए. 


एक बार उनको सेना में भर्ती होने का मौका भी मिला. ट्रेनिंग में जाने के लिए उनको कोटद्वार से सेना की गाड़ी द्वारा ले जाया जाना था. शायद कुदरत ने उनके लिए कुछ और ही राहें चुनीं थीं. 


इसलिए सेना के अधिकारी उन्हें अपने साथ ले जाना भूल गए. चाँद मौला बख्श निराश क़दमों से घर लौट आए. चाँद भाई अब अपने पिता की छोटी सी दुकान में समय देने के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगे. जिससे पिता के कन्धों से परिवार की आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ कम किया जा सके. 


अपने स्कूल के समय के फुटबॉल के एक अच्छे खिलाड़ी, अब लोगों के कपड़ों की सिलवटें निकालने में मशगूल थे. लेकिन इस सबके बीच उन्हें लग रहा था कि वे अपने जीवन को एक शानदार मक़ाम नहीं दे पायेंगे. ज़िन्दगी यूँ ही चलती रही. समय का पहिया घूमता रहा. उनके पिता को जवान होते बेटे के निकाह की चिंता सताने लगी. वे चाहते थे कि समय पर बेटे की शादी कर कम से कम एक ज़िम्मेदारी से जल्दी मुक्त हुआ जाए. 


सन् 1995 में चाँद मौला बख्श का निकाह हो गया. पिता की ज़िम्मेदारी तो पूरी हो गयी मगर परिवार में  चिंता करने वाला एक और शख्स बढ़ गया था. चाँद मौला बख्श की बीबी के रूप में……..निकाह के बाद उनकी पत्नी को भी लगा कि एक शानदार ज़िन्दगी जीने के लिए पैसा बहुत बड़ा महत्व रखता है. निकाह का अभी एक साल ही गुजरा था कि उनकी पत्नी ने चाँद मौला बख्श को हिन्दुस्तान से बाहर निकल कर दुबई जाने की सलाह दे डाली. उनकी बीबी के चाचा भी दुबई में रहा करते थे. इस बाबत उनसे बात भी की गयी.  


पत्नी की सलाह तो सही थी मगर आर्थिक तंगी में अपने वतन से दूर जाना कोई खेल नहीं था. कौन पैसा दे ? कहाँ से पैसा आए ? जैसे कई सवाल मुँह बाए खड़े हो गए. ऐसी स्थिति में उनकी बीबी ने अपना पत्नी धर्म निभाया. एक साल की नव विवाहिता बीबी ने अपने हाथों के कंगन अपने पति के हाथों में रख उन्हें बेच डालने को कह दिया. चाँद भाई के लिए ये समय कठिन निर्णय लेने का था. निकाह के तुरंत बाद बीबी के कंगन बेचना जहां दिमाग को परेशान कर रहा था, वहीं भविष्य के सपनों की उम्मीदें भी नज़र आ रहीं थीं. 


चाँद मौला बख्श ने पढ़ा था कि एक सफल मर्द के पीछे उसकी औरत का हाथ होता है. बस इस किताबी टैग लाइन के साथ मन पक्काकर बीबी के कंगन बेच डाले, ज़िन्दगी का अगला सफ़र चालू करने के लिए.


उत्तराखण्ड की वादियों से उड़कर एक युवा दुबई पहुँच चुका था. न वतन अपना था, न लोग अपने. वहाँ अगर कुछ साथ था तो वो था अपनी मेहनत, लगन और ईमानदारी. दुबई पहुंचकर वे एक होटल में रिसीविंग क्लर्क की नौकरी करने लगे. एक हज़ार दरम की तनख्वाह. परिवार की बढ़ती ज़िम्मेदारी. उनको लगा कि कुछ और कमाया जाए. इसके लिए उन्होंने अपने खाली समय में दुबई में भी बच्चों को ट्यूशन पढाना शुरू किया. 


वे मेहनत करने से कभी दूर नहीं भागे. ज़रुरत पड़ी तो होटल की रसोई में खाना बनाना, हाउस कीपिंग से लेकर ट्रक सफाई तक का कार्य करने में उन्होंने शर्म महसूस नहीं की. उनका मानना था कि भारत की देवभूमि उत्तराखण्ड की धरती पर पैदा इंसान तो संघर्षों का मित्र होता है. तो मित्र से मित्रता तो निभानी ही चाहिए.


यहाँ उनकी मेहनत और काम के प्रति ईमानदारी का नतीजा ये निकला कि नौकरी के तीन महीने बाद ही उनको सुपरवाइजर के पद पर पदोन्नति मिल गयी. इस पदोन्नति से चाँद भाई का उत्साह और बढ़ा. वक्त गुजरता रहा. काम में निष्ठा से लगे - लगे कब तीन वर्ष गुज़र गए उन्हें पता न चला. 


तीन वर्ष बीत जाने का पता तो तब चला जब उनके हाथ में मैनेजर के पद पर पदोन्नत होने का पत्र आया. अब ऊंचे पद के साथ जेब में आने वाली तनख्वाह भी सीधे पांच गुना हो चुकी थी. चाँद मौला बख्श के लिए ये वक्त सुकून देने वाला था. 


इन तीन वर्षों के संघर्ष में चाँद भाई को वतन की.... परिवार की याद बहुत आती थी. दिल हल्का करने को  संगीत के शौक़ीन चाँद भाई वतन के गायकों की ग़ज़लें सुन लिया करते थे. 


कभी-कभी आस पास के माहौल में मची हलचल इंसान के जीवन में कई तब्दीलियाँ ला देता है. ये तब्दीलियां कभी बुरी भी होती है मगर कभी-कभी अच्छी भी. चाँद भाई के सितारे अभी बुलंदियों पर थे. सन् 2008 के गल्फ वार ने उनके जीवन को एक और मोड़ दिया.

 

चाँद मौला बख्श के हाथों की आर्थिक तंगी ख़त्म हो चुकी थी. धीरे-धीरे आर्थिक साम्राज्य बड़ा होता जा रहा था. लेकिन दिल में अभी भी एक कसक बाकी थी. वतन की सेवा कैसे की जाए? उन्होंने कोशिश की कि दुबई में नौकरी की तलाश करने वाले भारतियों की मदद की जाए. इस प्रकार धीरे-धीरे उन्होंने लगभग तीन हज़ार भारतियों को वहाँ नौकरी में मदद की. बस यहीं से उनके अन्दर एक समाजसेवी की भावना जाग उठी. 


विदेश की धरती पर भारतीय होने का अहसास बार-बार जगता रहे इसके लिए उन्होंने अन्य प्रवासी  भारतियों के साथ मिलकर एक संस्था का  गठन किया. जिसके अंतर्गत सन् 2010 से वे हर वर्ष "कौथीक" नाम से सांस्कृतिक कार्यक्रम किया करते हैं. जिसमें उत्तराखंड के नामी गिरामी कलाकारों को आमंत्रित कर दूर परदेश में बैठे हुए अपनी माटी की खुशबू पा लेते हैं. 


कभी कभी हम पाते हैं  कि इंसान के मुस्कुराते चेहरे के पीछे काफी दर्द और पीड़ा छुपी है. चाँद भाई के मामले में भी ऐसा ही कहा जा सकता है. उनके दो बेटियों और दो बेटों में से 26 वर्षीय सबसे बड़ा बेटा जन्म से ही दिव्यांग है. परन्तु वे उसकी दिव्यांगता को एक सकारात्मक रूप में लेते हैं. 


समाज सेवा से जुड़े चाँद मौला बख्श का कहना है कि बेटे की दिव्यांगता उनके अन्दर समाज सेवा के भाव को ज़िंदा रखे हुए है. उनका मानना है कि ईश्वर ने मुझे ऐसा बेटा इसलिए दिया कि वो बेटे की सेवा करते हुए चौबीसों घंटे बेबस, लाचार और ज़रुरत मंद लोगों को अपने आसपास पा सकें. ऐसे हालातों में भी उनकी ज़िंदा दिली को सलाम करने को मन करता है. 


जीवन संघर्षों के साथ कदम ताल मिलाते हुए चाँद मौला बख्श आज सफलता के पहले पायदान पर है. आज वे दुबई में लगभग एक दर्ज़न कंपनियों के मालिक या हिस्सेदार हैं.  धीरे धीरे उन्होंने भारत में भी अपना कारोबार बढ़ाना शुरू किया और अब वे उत्तराखण्ड में होटल इंडस्ट्री के माध्यम से कई ज़रुरत  मंदों को रोज़गार उपलब्ध करा रहे हैं. 


चाँद मौला बख्श का मानना है कि कभी अपने जिन अरमानों को मैंने मरते देखा है, किसी दूसरे के उन्हीं अरमानों को मैं एक उड़ान देना चाहता हूँ. आज उनके साथ कई लोग उनके समाज सेवा के कार्यों से भी जुड़े हुए है. चाँद भाई का सफ़र जारी है अनवरत ... अनंत भविष्य के लिए.



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