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नन्दा देवी पर्वत में दफ़न एक रहस्य जिसका ख़तरा आज भी बरकरार है

उपान्त डबराल

यूँ तो हिमालय की गोद में बसा उत्तराखण्ड अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है लेकिन यहाँ के पहाड़ों पर रहने वाले स्थानीय लोगों का जीवन कई प्राकृतिक ख़तरों से घिरा हुआ है। 07 फरवरी को चमोली ज़िले की घाटी में आई आपदा इसका ताज़ा उदाहरण है। वहीं इन प्राकृतिक ख़तरों के बीच इन घाटियों में एक बड़ा रहस्यमयी ख़तरा भी मौजूद है। इस रहस्य की शुरुआत होती है साल 1964 में। जब विश्व में शीत युद्ध चल रहा था। इस शीत युद्ध के दौरान चीन ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था, जिस कारण अमेरिका विचलित हो गया और 1965 में उसने चीन की परमाणु गतिविधिओं पर नज़र रखने के लिए भारत से मदद मांगी। इस मदद की हामी के साथ ही अमेरिका की केंद्रीय ख़ुफ़िया एजेंसी (CIA) और भारतीय ख़ुफ़िया विभाग इस रहस्यमयी मिशन की शुरुआत करते हैं। इस मिशन के अंतर्गत अमेरिका ऊंची पहाड़ी पर एक जासूसी यंत्र लगाना चाहता था जिससे वह चीन की परमाणु गतिविधिओं पर नज़र रख सके। 

इस मिशन के लिए पहले भारत के सबसे ऊंचे पर्वत कंचनजंगा को चुना गया। परन्तु भारतीय सेना ने वहां इस प्रकार की गतिविधि को नामुमकिन बताया। इसके बाद नन्दा देवी पर्वत पर इस मिशन के होने की हामी भरी गयी। नन्दा देवी पर्वत 7,824 मीटर (25,663 फीट) की ऊँचाई पर सीधा खड़ा भारत का दूसरा सबसे ऊंचा पर्वत है। तब ये मिशन 200 लोगों की टीम के साथ शुरू किया गया। इस टीम को नन्दा देवी पर्वत पर  लगभग 56 किलो के यंत्र स्थापित करने थे, जिनमें अनुमानतः 10 फीट ऊंचा एंटीना, दो ट्रांसमीटर सेट और सबसे अहम् परमाणु शक्ति जनरेटर (SMEP सिस्टम) और 7 प्लूटोनियम कैप्सूल शामिल थे। टीम के साथ रहे शेरपाओं ने परमाणु शक्ति जनरेटर को “गुरु रिम पोचे” नाम दिया था। परमाणु शक्ति जनरेटर हिरोशिमा पर गिराए गए बम के आधे वज़न का था। 

18 अक्टूबर 1965 को जब टीम लगभग 24000 फ़ीट पर स्थित कैंप 4 पर पहुंची तो वहां मौसम बहुत ख़राब हो गया। हालात ये बने कि इस मिशन के लीडर कैप्टन मनमोहन कोहली को ख़ुफ़िया यंत्र और अपनी टीम की जान में से किसी एक को चुनना था, उन्होंने अपनी टीम की जान को चुना। मशीन और प्लूटोनियम कैप्सूल कैंप 4 पर ही छोड़ने पड़े और टीम वापस आ गई। सीआईए के व्यक्ति के साथ मनमोहन सिंह की टीम दोबारा 01 मई 1966 को इस अभियान को दोबारा शुरू करती है। इस बार टीम तय करती है कि इन यंत्रों को सिर्फ 6000 फीट की ऊँचाई पर लगाया जाएगा। टीम 01 जून,1966 को यंत्रों को लेने के लिए कैंप 4 पर पहुँचती है लेकिन टीम को यंत्र नहीं मिलते और उनके बारे में आज तक कोई पुख़्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। माना जाता है की प्लूटोनियम कैप्सूल की उम्र 100 साल तक की है। इस क्षेत्र में रेडियोएक्टिव पदार्थों के एक्टिव होने की संभावना अभी भी बरक़रार है और ख़तरा अभी भी बना हुआ है। खोने के समय यह 'डिवाइस' एक्टिव नहीं थी। (ये समस्त जानकारी कैप्टन मनमोहन कोहली के साक्षात्कार से ली गयी है।)

स्टीफन आल्टर ने एक किताब लिखी है "Becoming a Mountain" जिसमें यह दावा किया गया है कि जो शेरपा इस डिवाइस को ढोकर ले गये थे उनकी मौत रेडियोएक्टिव विकिरण से हुए कैंसर से हुई थी। तब से लेकर अब तक प्लूटोनियम के ढूंढने के लिए कई अभियान चले पर सफलता नहीं मिली।

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