उत्तर नारी डेस्क
पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत ने सल्ट की चुनावी हार पर समीक्षा करते हुए पार्टी के भीतर और बाहर अपने विरोधियों पर तंज कसा है।
जी हाँ पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि सल्ट में हुई चुनावी हार ने हमारे लिए इस विमर्श का मौका पैदा किया है कि हार को बड़े अवसर में बदलना ही तो कांग्रेस है। मगर यह काम आमने-सामने बैठकर एक खुले परामर्श में हो सकता है। साथ ही कहा कि उपचुनाव में मैंने कार्यकर्त्ताओं में जीतने की ललक देखी है। इस ललक को एक बड़ी भूख में बदलने के काम में सभी को जुटना होगा।
सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट में हरदा ने सल्ट की चुनावी हार पर समीक्षा करते हुए लिखा कि कोरोना ने कमजोर अवश्य कर दिया है, मगर इतना कमजोर नहीं हुआ हूँ कि उत्तराखंड में किसी भी चुनावपर चर्चा हो और मेरा नाम आलोचना-समालोचना के दायरे में न रहे। मैं, 2 मई को अपने आवास से अस्ताचंल होते हुये भुवन भास्कर को निहार रहा था-बहुत गरिमामय लग रहे थे। उस समय मेरे मन में सल्ट विधानसभा में हुई चुनावी हार पर मंथन चल रहा था। यह स्पष्ट है कि चुनाव में सल्टकी चेली का नारा और उत्तराखंडियत के साथ इस चुनाव को जोड़ने का प्रयास करती हुई मेरी अपील हारी है, सल्ट विधानसभा उपचुनाव में भाजपा का संगठन, अकूत धन के साथ-साथ सहानुभूति का फैक्टर जीता है। इस तथ्य को नहीं भुला जा सकता कि सल्ट चुनाव से पहले थराली व पिथौरागढ़ के उपचुनाव तथा 2017 के चुनाव में भी मैंने उत्तराखंडियत से जुड़े सवालों व समाधानों को प्रमुख मुद्दा बनाया था, मगर मैं पार्टी को जीता नहीं पाया।
इस आलोक में विवेचना करने का समय आ गया है कि क्या मैं, उत्तराखण्डियत से जुड़ी हुई अपनी सोचों को लपेटकर एक तरफ रखूं और पार्टी को 2022 के चुनाव के लिए अन्यानन्य मुद्दों व तौर-तरीकों को तय करने दूं। यूँ भी 2002 से 2017 तक चुनाव में उत्तराखण्डियत का एजेंडा न किसी ने सवाल बनाया था, न इस प्रश्न पर चुनाव लड़ा गया था, हां वर्ष 2002 में इस सोच का थोड़ा असर था। राज्य संघर्ष के दौर में भी उत्तराखंडियत पर बहुत गहन विश्लेषण सामने नहीं आया। मैं, उस समय भी कुछ इससे जुड़े-२ से सवाल उठाकर चर्चा पैदा करने का प्रयास करता था। मगर उस समय एक जुनून था, अनंतोगत्वा मैं भी उस जुनून का हिस्सा बन गया। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री का दायित्व ग्रहण करने से पहले मैं, केंद्र सरकार व केंद्रीय स्तर पर पार्टी द्वारा दिये गये दायित्वों का निर्वहन करने में लगा रहा। उस समय भी उत्तराखंडियत से जुड़े प्रसंगों को मैंने यदा-कदा उठाया है, जैसे उत्तराखंड में स्थापित हो रहे उद्योगों में 70 प्रतिशत स्थान स्थानीय नौजवानों के लिए आरक्षित किये जाने का निर्णय है।
मुख्यमंत्री बनते ही मैंने बेबसी के पलायन व सांस्कृतिक क्षरण रोकने तथा पहाड़ों के संसाधनों व प्रकृति का युक्ति युक्त उपयोग की योजना बनाकर पलायन को नियंत्रित करने जैसे सवालों पर फोकस किया और मेरी सरकार ने आपदा पुनर्वास और पुनर्निर्माण के समकक्ष ही इन बिंदुओं पर भी राज्य शासन का ध्यान केंद्रित रखा और तदनुसार निर्णय लिये। जरा अपनी स्मृति को टटोलें, आप पाएंगे कि राज्य निर्माण के 14 वर्षों बाद पहली बार आपको अपने ही कुछ परिचित शब्द, सरकार के एजेंडे में उकेरे हुये दिखेंगे। मैं, उत्तराखंडी उत्पादों, सांस्कृतिक पहलूओं व शिल्प, वस्त्र-आभूषण, खान-पान, भाषा-बोली आदि का उल्लेख कर रहा हूंँ। मैंने मुख्यमंत्री के रूप में उपलब्ध समय व परिस्थितियों का भरपूर उपयोग किया और वर्षों से उपेक्षित उत्तराखंडियत को राज्य के एजेंडे में प्रमुख स्थान दिया, इस सत्य को मेरे कटुतम् आलोचक भी स्वीकारेंगे कि आज यदि इनमें से उत्तराखंडियत के कुछ बिंदु सरकार की चर्चाओं में हैं तो इसकी बुनियाद 2014 से 2016 के मध्य पड़ी है।
चुनाव में पराजित होने के बाद भी मैं इस उत्तराखंडी अस्मिता के झंडे को उठाए फिर रहा हूंँ, पार्टी व पार्टीजनों पर थोप रहा हूंँ, मैं ऐसा अकेला व्यक्ति नहीं हूंँ जिसने इस पर चर्चा की है, हजारों-हजार लोग उत्तराखंडियत को समर्पित हैं, शायद मुझसे अधिक गंभीरता के साथ। परंतु इस सत्य को भी आप स्वीकारेंगे कि मुख्यमंत्री व भूतपूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर हरीशरावत ही अभी तक एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जिसने समर्पित भाव से उत्तराखंडियत के झंडे को उठाया और समन्वित विकास की योजना बनाकर नारसन और भटवाड़ी, नादेही और गुंजी-माणा के समग्र विकास का उत्तराखंडी नक्शा बनाने का प्रयास किया। मेरी सरकार ने सामाजिक कल्याण, रोजगार और प्रशासनिक सुधार, जिसमें भूमि सुधार भी सम्मिलित हैं, समस्त उत्तराखंडियत की प्राथमिकता के रूप में उसको स्थापित किया। मैंने प्रयास करके न केवल गुड़, मडुवा और नींबू की एकीकृत सोच बनाई बल्कि चारधाम की महत्ता के साथ कलियर और हेमकुंड साहब की महत्ता को पिरोया। इसका शुभ परिणाम यह है कि कुंभ की पेशवाईयों की आरती उतारने व कावड़ के वक्त कावड़ियों के सेवा हेतु स्टाल लगाने का काम मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं, तो वहीं पर कलियर के उर्स में जायरीनों की सेवा के लिये हिंदू समाज मेडिकल कैंप लगाता है और चमोली के सैकड़ों नौजवान 2014 में हेमकुंड साहब की यात्रा के हिस्सा बनकर सुरक्षित हेमकुंड साहिब यात्रा का संदेश, देश और दुनिया को देते हैं। मेरी सरकार ने ही पहली बार आपकी मिट्टी, आपके परंपरागत पशु, वृक्ष व देव जन्य जल के संग्रहण को बोनस योजना के अंदर समाहित कर राज्य सरकार का एजेंडा बनाया और हमने प्रयास किया कि गैरसैंण को पहाड़ों का ही नहीं बल्कि सारे उत्तराखंड के समग्र विकास का केंद्र बिंदु समझा जाय। यही कारण है कि आज सभी राजनैतिक दल, गैरसैंण से जुड़े किसी भी सवाल पर एक कदम आगे बढ़कर अपना समर्थन देते हैं या अपनी बात कहते हैं।
ये सब अभी कल की बातें हैं, इन सबको कल-कल में रखना है या कल बना देना है, इसको तय करना अति आवश्यक है। सल्ट की चुनावी हार एक अंतिम चेतावनी है, हम यहां से संभलते हैं तो 2022 अब भी हमारी सीमा में है। पार्टी को विचार करना है कि हमको अपने अतीत के एक हिस्से में लिये गये निर्णयों और विकास कार्यों को जिनमें दैवीय आपदाकाल के दौरान किया गया पुनर्निर्माण व पुनर्वास भी सम्मिलित है, उसको कितना अपनी पार्टी से जोड़ना है और समय के आवश्यकतानुसार क्या-क्या परिवर्तन लाया जाना है, मुझ जैसे पौंगापंथी लोगों के लिये अपनी सोच से हटना कठिनतम कार्य है। मैं तो लकीर का फकीर हूंँ, 1969 में कांग्रेस में आया था और वहीं से अस्तांचल की तरफ गमन करूंगा। पार्टी महत्वपूर्ण है, वो हारती है मगर फिर से उदित होने के लिये। जिस तरीके से भुवनभास्कर फिर उदित होते हैं, पूरी गरिमा के साथ उदित होते हैं, 2022 में भी ऐसा ही होगा। पार्टी के लिये आवश्यक है कि वो अपनी पार्टी द्वारा अपनायी गई व क्रियान्वित की गई उत्तराखण्डियत युक्त सामाजिक कल्याण, भू-सुधार सहित प्रशासनिक सुधार, समन्वित आर्थिक विकास की नीतियों पर विहंगम विवेचन करें और अपनी मानव शक्ति के चुनावी उपयोगिता का भी आकलन करें।