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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर जानें देवभूमि उत्तराखण्ड की कुछ नारी शक्तियों के बारे में

उत्तर नारी डेस्क

उत्तराखण्ड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता। यहां आदिकाल से ही नारी शक्ति की पूजा की परंपरा रही है। यहां कालीमठ, सुरकंडा देवी, चंद्रबदनी देवी, चंडी देवी और मायादेवी के अलावा भी देवियों के कई मंदिर हैं तो वहीं, नंदा देवी राजजात जैसी विश्वप्रसिद्ध सांस्कृतिक धरोहर भी। यहां तक की उत्तराखण्ड राज्य गठन में भी हमारी नारी शक्ति का अहम योगदान रहा है। 

नारी किसी परिवार का ही नहीं बल्कि देश की समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। नारी देश की आज़ादी के साथ अपने वतन की समृद्ध में हमेशा योगदान देती आई है। कई आंदोलनों का हिस्सा रहने वाली यह नारी युद्ध के मैदान में भी दुश्मनों को पछाड़ती आई है। तो वहीं, अपने मातृत्व की ज़िम्मेदारी को भी नारियां बखूबी निभाती आई है। नारियों के आन्दोलन में योगदान को लेकर उत्तराखण्ड में ऐसी महिला शख्सियतों की भरमार है।

महिला दिवस पर इन्हें नमन:-

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। पूरी दुनिया में 8 मार्च को दुनिया के बहुत से देशों में महिलाओं की उपलब्धि को सराहा जाता है। इसी क्रम में आज हम आपको उत्तराखण्ड की ऐसी ही सशक्त वीरांगना महिला के बारे में बताएंगे। जिन्हें गढ़वाल की झांसी की रानी नाम से जाना जाता है। जो केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को कड़ी चुनौती दी थी। जी हाँ वीरों की भूमि गढ़वाल में आठ अगस्त, 1661 को चौंदकोट परगना के गुराड़ तल्ला में तत्कालीन गढ़वाल नरेश फतेहशाह के सभासद भूपसिंह गोर्ला (भुप्पू रौत) व मैणावती के घर महान वीरांगना वीरबाला तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। 

तीलू रौतेली का मूल नाम तिलोत्तमा देवी था और उनके पिता भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतहशाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। जिस कारण उन्होंने 15 वर्ष की उम्र में ईडा, चौंदकोट के थोकदार भूम्या सिंह नेगी के पुत्र भवानी सिंह के साथ धूमधाम से तीलू की सगाई कर दी थी। जहां मात्र 15 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने गुरु शिबू पोखरियाल से घुड़सवारी और तलवार बाजी सीखी। 

उस समय गढ़नरेशों और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रहा था। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह वहां की रक्षा की जिम्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर उन सभी आक्रमणकारियों का मुकाबला किया। परंतु इस युद्ध में वे अपने दोनों बेटों और तीलू के मंगेतर के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए। मंगेतर भवानी सिंह के युद्धभूमि में इस वीरगति के बाद तीलू रौतेली ने कमान संभाली और महज 15 वर्ष की उम्र में ही तीलू रौतेली ने कत्यूरी आक्रांताओं की सेना के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंककर अपनी वीरता का लोहा मनवाया। 

इस युद्ध में तीलू की दो सहेलियां देवकी और बेला, जो तल्ला गुराड़ में ब्याही थीं और उम्र में तीलू से छोटी थीं। उन्होंने भी तीलू का साथ दिया। वह दोनों तीलू को रौतेली कहकर पुकारती थी। जिस वजह से यहीं से वीरांगना का नाम तीलू रौतेली नाम से प्रचलित हुआ।

गौरा देवी- पेड़ों को बचाने के लिए गौरा देवी का योगदान पूरे विश्व में एक मिसाल के रूप में पेश किया जाता है। गौरा देवी ने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए 1970 के दशक में चिपको आंदोलन की शुरुआत की, जिसने धीरे धीरे व्यापक रूप ले लिया। इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन इसलिए पड़ा क्योंकि लोग पेड़ों को कटने से बचाने के लिए इनसे चिपक जाते थे। बता दें, कि जब उत्तराखण्ड के रैंणी गांव के जंगल के लगभग ढाई हज़ार पेड़ों को काटने की नीलामी हुई, तो गौरा देवी के नेतृत्व मे रैंणी गांव की महिला मंगल दल की 21 अन्य महिलाओं ने इस नीलामी का विरोध किया। इसके बावजूद सरकार और ठेकेदार के निर्णय में बदलाव नहीं आया। जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने पहुंचे, तो गौरा देवी और उनकी 21 साथियों ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की। जब उन्होंने पेड़ काटने की जिद की तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें ललकारा कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना। अंतत: ठेकेदार को जाना पड़ा। इस तरह गौरा देवी और उनकी 21 साथियों ने चिपको आंदोलन की शुरुआत की। 


रामी बौराणी- त्याग व समर्पण की प्रतिमूर्ति पहाड की नारी है। जो उत्तराखण्डी महिला के त्याग, समर्पण, स्त्रीत्व और सतीत्व को परिभाषित करती है। 

सीता और सती सावित्री की तरह रामी भी उत्तराखण्ड में सतीत्व की आदर्श प्रतिमा है। रामी का पति विवाह के बाद परदेस चला जाता है। वह वर्षों तक नहीं लौटता। जिसकी याद में वह दिन काटती रहती है। 

प्रतीकात्मक तस्वीर. फोटो: प्रो. मृगेश पाण्डे

हंस फाउंडेशन की मंगला माता-  मंगला माता उत्तराखण्ड में आम लोगों तक मदद पहुंचाने का काम कर रही हैं। सुदूर पहाड़ों में अस्पताल खोलकर, स्कूल खोलकर, रोजगार के नए मौके पैदा कर मंगला माता युवाओं को रोजगार के नए मौके दे रही हैं और पलायन पर रोक लगाने का काम कर रही हैं।


डॉ. माधुरी बर्थवाल- डॉ. माधुरी बड़थ्वाल आल इंडिया रेडियो नबीबाजाद में पहली महिला संगीतकार रहीं हैं। मूल रूप से पौड़ी जिले के यमकेश्वर के चाय दमराड़ा निवासी डा. माधुरी बड़थ्वाल वर्तमान में देहरादून के बालावाला में रहती हैं। उनके पिता चंद्रमणि उनियाल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, ऐसे में उनकी प्रारंभिक शिक्षा लैंसडौन में ही हुई है। बचपन से ही संगीत से लगाव रखने वाली माधुरी ने 1969 में राजकीय इंटर कालेज लैंसडौन से हाईस्कूल करने के बाद इसी स्कूल में 1979 तक उन्होंने लैंसडाउन कोटद्वार में संगीत अध्यापिका के तौर पर सेवा दी। उनके नाम राज्य की पहली गढ़वाली महिला संगीत अध्यापिका और गाइड कैप्टन होने की भी उपलब्धि है। 

इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद संगीत समिति से संगीत का प्रशिक्षण लिया। उन्होंने आगे की पढ़ाई प्राइवेट से जारी रखी। आगरा यूनिवर्सिटी से संगीत में डिग्री, रुहेलखंडी यूनिवर्सिटी से हिंदी से एमए करने के बाद वर्ष 2007 में उन्होंने केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। जहां उन्होंने गढ़वाली लोकगीतों में राग रागनियां विषय पर शोध किया।

वहीं 1979 से 2010 तक सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत वह आकाशवाणी नजीबाबाद में संगीत संयोजिका व निर्देशिका के पद पर अखिल भारतीय स्तर पर भारत की पहली महिला चयनित आकाशवाणी स्वर परीक्षा समिति की सदस्य भी रहीं। उन्होंने उतर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला में गुरु शिष्य परंपरा के तहत गुरु पद पर काम किया। संस्कृति विभाग, सूचना विभाग और गीत नाट्य अकादमी भारत सरकार की शाखा दून और विवि की क्षेत्रीय परीक्षा समितियों में संगीत व नाट्य कला विशेषज्ञ, युवाओं व महिलाओं को शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में निशुल्क संगीत प्रक्षिशण दिया। इसके अलावा 2016 में उन्हें नारी शक्ति पुरस्कार, 2016 राष्ट्रपति सम्मान, 2014 में उत्तराखण्ड रत्न, 2018 में उत्तराखण्ड भूषण, स्व. मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला सम्मान से भी सम्मानित किया गया है। 



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