उत्तर नारी डेस्क
उत्तराखण्ड भारत के उत्तर में स्थित एक पहाड़ी राज्य है। 2000 और 2006 के बीच यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। उत्तराखण्ड 9 नवंबर सन 2000 को भारत गणराज्य के 27 वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। राज्य का निर्माण कई वर्ष के आन्दोलन के पश्चात् हुआ।
बात; अब शौर्य गाथा की कि जाए, तो उत्तराखण्ड को ऐसे ही वीरभूमि नहीं कहा जाता है। यहां की भूमि ने न जाने ऐसे कितने जांबाज दिए है जिन्होंने आजादी के पहले से लेकर अब तक भारत माता के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए है। गढ़वाल क्षेत्र आदिकाल से ही वीरों की भूमि रहा है। यही वजह है कि वीर-वीरांगनाओं की भूमि गढ़वाल को वीर भूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है।
उत्तराखण्ड सैन्य इतिहास वीरता और पराक्रम के असंख्य किस्से खुद में समेटे हुए है। कारगिल युद्ध की वीर गाथा भी इस वीरभूमि के जिक्र बिना अधूरी है। जहां इस महासंग्राम में 75 रणबांकुरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर तिरंगे की ताकत को कायम रखा और सूबे के 75 सैनिक इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे।
यूँ तो गढ़वाली सैनिकों की वीरता और कर्तव्यपरायणता की कहानियां पूरी दुनिया में मशहूर हैं। लेकिन आज हम आपको गढ़वाल का सैन्य इतिहास बताएंगे। गढ़वाल राइफल्स जो भारतीय सेना का एक सैन्य-दल है। गढ़वाल का सैन्य इतिहास साल 1814-15 से शुरू हुआ। जहां साल 1814 में खलंगा युद्ध में गोरखा रेजिमेंटों के साथ गढ़वाली सैनिकों ने भी हिस्सा लिया था। इन सैनिकों की वीरता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने एक अलग रेजिमेंट की स्थापना की, जिसमें गढ़वाली लोग भर्ती हुए।
गढ़वाल रेजीमेंट का इतिहास
बता दें गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना 1887 में हुई थी। जिसकी स्थापना का श्रेय सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी को जाता है। जिन्होंने साल 1879 में हुए कंधार युद्ध में अद्भुत वीरता और क्षमता का परिचय दिया था। इसके लिए उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ मैरिट’, ‘आर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’, ‘सरदार बहादुर’ आदि कई सम्मान से सम्मानित किया गया था। उस समय दूरदृष्टि रखने वाले पारखी अंग्रेज़ शासक गढ़वालियों की वीरता और युद्ध कौशल का रुझान देख चुके थे। तब तक बलभद्र सिंह नेगी प्रगति करते हुए जंगी लाट का अंगरक्षक बन गए थे। कहा जाता है कि कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल एफएस रॉबर्ट्स ने कहा था कि ‘एक कौम जो बलभद्र जैसा व्यक्ति पैदा कर सकती है, उसकी अपनी एक बटालियन होनी चाहिए।’ साल 1886 में उन्होंने अलग गढ़वाली रेजिमेंट बनाने के लिए तत्कालीन वॉयसराय लार्ड डफरिन को लेटर लिखा और गढ़वाली बटालियन बनाने की सिफारिश की। इस तरह 4 नवम्बर 1887 को गढ़वाल के कालौडांडा में ‘गढ़वाल पलटन’ का शुभारंभ हुआ। कुछ वर्षों पश्चात् कालौडांडा का नाम उस वक्त के वाइसराय लैन्सडाउन के नाम पर ‘लैन्सडाउन’ पड़ा, जो आज भी गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर है।
गढ़वाली, कुमाऊंनी एवं गोरखा कम्पनी में थोड़ा बहुत हेर-फेर करने के पश्चात् एक शुद्ध रूप से गढ़वाली पलटन बनाई गई, जिसका नाम 39वीं गढ़वाली रेजीमेंट इनफैन्ट्री रखा गया। इस रेजीमेंट की एक टुकड़ी को 1889 ई. में 17000 फीट की ऊंचाई पर नीति घाटी में भेजा गया, जहां इन्होंने बहुत दिलेरी एवं कर्तव्यनिष्ठता से अपना कार्य किया, जिसके लिए इनको तत्कालीन जंगी लाट ने प्रशंसा पत्र दिए। उसके बाद 5 नवम्बर 1890 ई. में इस रेजीमेंट की 6 कम्पनियों को चिनहिल्स (बर्मा) में सीमा सुरक्षा हेतु भेजा गया। विपरीत परिस्थितियों में असाधारण शौर्य एवं साहस दिखाने के वास्ते प्रत्येक सिपाही को ‘बर्मा मेडल’ एवं ‘चिनहिल्स मेडल’ दिये गये। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली ‘चिनहिल्स मेडल’ दिए गए। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली सिपाही शहीद हुए। इस सफलता के फलस्वरूप 1892 ई. में रेजीमेन्ट को सम्मानजनक ‘राइफल’ की उपाधि प्रदान की गई। धनसिंह बिष्ट तथा जगत् सिंह रावत की वीरता विशेष उल्लेखनीय रही जिसके वास्ते उन्हें विशेष पदवी से अभिनंदित किया गया।
गढ़वालियों की युद्ध क्षमता
गढ़वालियों की युद्ध क्षमता की असल परीक्षा प्रथम विश्व युद्ध में हुई जब गढ़वाली ब्रिगेड ने ‘न्यू शैपल’ पर बहुत विपरीत परिस्थितियों में हमला कर जर्मन सैनिकों को खदेड़ दिया था। 10 मार्च 1915 के इस घमासान युद्ध में सिपाही गब्बर सिंह नेगी ने अकेले एक महत्वपूर्ण निर्णायक व सफल भूमिका निभाई। कई जर्मन सैनिकों की खन्दक में सफाया कर खुद भी वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उत्कृष्ट सैन्य सेवा हेतु उसे उस समय के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ मरणोपरांत प्रदान किया गया। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे रॉयल के खिताब से भी नवाजा था।
दरबान सिंह नेगी के बेटे कर्नल बी. एस. नेगी के मुताबिक़ इसी युद्ध में फेस्ट्वर्ड की भयंकर लड़ाई हुई, जहां जर्मन सेना ने मित्र राष्ट्र के कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। यहां पहले गढ़वाल बटालियन ने छापामार तरीके से ठिकाने वापस लिए व भारी संख्या में जर्मन सैनिकों को बन्दी बनाया, जिसमें विजय ब्रिटेन को मिली। न मालूम उस वक्त कितने जर्मन मारे गये, 105 जर्मन कैद किये गये। तीन तोपें बहुत सी बन्दूकें और सामग्री भी हाथ लगी। इस संघर्ष में नायक दरबान सिंह नेगी को अद्भुत रणकुशलता और साहस दिखाने के लिए ब्रिटेन के राजा ने युद्ध भूमि में ही सर्वोच्च पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ से अलंकृत करके गढ़वालियों का सम्मान बढ़ाया। उस समय विपक्षी जर्मन व फ्रांसीसी सैनिक भी गढ़वाली सैनिकों का लोहा मानने लगे थे। उनकी शूरवीरता तथा दिलेरी की सब जगह चर्चाएं होती थी। 23 अप्रैल 1930 में गढ़वाली सैन्य इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना घटी जब नायक चन्द्रसिंह के नेतृत्व में गढ़वाली सिपाहियों ने एक शान्तिप्रिय तरीके से आन्दोलन कर रहे पेशावरी, निहत्थे जनसमूह पर गोली चलाने को मना कर कोई भी दण्ड स्वीकारना श्रेयस्कर समझा। गढ़वालियों का यह आश्चर्यचकित करने वाला साहसिक एवं राष्ट्रवादी प्रदर्शन था जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इस घटना से प्रभावित होकर बाद में हजारों सैनिक आजाद हिन्द फौज की तरफ से लड़े। नौसेना में भी विद्रोह की चिंगारी इसी घटना के बाद फूटी। गढ़वाल रेजीमेंट का 125 वर्षो का इतिहास शूरवीरता से भरा पड़ा है।
बता दें कि गढ़वाल राइफल्स को भारतीय सेना की सबसे सीमित इलाके से बनने वाली रेजिमेंट भी कहा जाता है क्योंकि इसमें गढ़वाल के केवल सात जिलों से आने वाले नौजवानों की भर्ती होती है। भारतीय सेना की सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार पाने वाली रेजीमेंट का घर भी इसे ही कहा जाता है। आज भी देश की सीमा पर खड़े होने वाला हर पांचवे जवान का नाता उत्तराखण्ड से है। उत्तराखण्ड के हर तीसरे घर से एक बेटा सेना में देश की रक्षा कर रहा है।
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