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रक्षा बंधन कब है, जानें भाई को राखी बांधने का शुभ मुहूर्त

उत्तर नारी डेस्क 

इस वर्ष 11 अगस्त 2022 गुरुवार को ही करणीय हैं। प्रातः संगवकाल में भद्रापूर्व 10.38 बजे तक सूण मांडना और रात्रि 08.51 भद्राशुद्धि बाद रक्षाबंधन करना शास्त्रीय होगा। रक्षाबंधन में रात्रि दोष नहीं होता है-

इयन्तु (श्रावण पूर्णिमा) पूर्वविद्धैव ग्राह्या। चन्द्रग्रहणे सति संक्रांति दिनेऽपि कर्तव्यम्। भद्रान्ते प्रदोषे रात्रौ वा कार्यम्।

12 अगस्त को पूरे भारतवर्ष में पूर्णिमा उदय व्यापिनी तो है पर त्रिमहूर्त से न्यून हैं। अतः 12 को रक्षाबंधन एवं श्रावणी करना शास्त्रीय नहीं होगा। पहले दिन ही मनावेंं। उदये त्रिमुहूर्त्तन्यूनत्वे पूर्वेद्यु: प्रदोषादिकाले कर्तव्यम्।याजुषादियों को उपाकर्म (श्रावणी) भी 11 अगस्त को ही कर्तव्य है। उपाकर्म में भद्रा दोष नहीं होता है। रक्षाबंधन में होता है-

भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा यहां "श्रावणी" शब्द रक्षाबंधन के अर्थ में है न कि उत्सर्ग-उपाकर्म के अर्थ में। इस पंक्ति में कुछ महानुभाव श्रावणी का अर्थ उपाकर्म निकालते हैं जो भ्रामक है। 11 अगस्त को पूरे दिन भद्रा है अतः अपराह्न में रक्षाबंधन संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में भद्रा उपरान्त या प्रदोष में रक्षासूत्र "येन राजा बलि: ... मंत्र से बाधें।

इसी दिन याज्ञिकों का "श्रवणाकर्म" कथित है।

श्रावण्यां पौर्णमास्यांं श्रवणाकर्म

इसी दिन भगवान विष्णु ने चौदह अवतारों में वेदों के रक्षार्थ हयग्रीव अवतार धारण किया था। अतः श्रावण पूर्णिमा के दिन सायंकाल "हयग्रीव जयंती" मनाई जाती है।

श्रावण्यां श्रवणे जात: पूर्वं हयशिरा हरि:

 विशेष-

रक्षाबंधन का दिन श्रावणी-उपाकर्म, वेदारंभ, शैक्षिक सत्रारम्भ व सत्र समापन, देववाणी पर्व, द्विजकर्मोत्सव, यज्ञोपवीत परिवर्तन पर्व, ब्राह्मण प्रतिष्ठा पर्व, आर्यसंरक्षण दिवस, संस्कृत भाषा दिवस आदि के रूप में मान्यता ले चुका है।

मेरी मान्यता है कि रक्षाबंधन के दिन को "राष्ट्रीय - अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति दिवस" घोषित करना चाहिए। अपने अपने गृहसूत्रानुसार और वेदानुसार सभी के लिए श्रावणी - उपाकर्म यथाविधि करने के आदेश हैं।

श्रावण्यां श्रावणीकर्म यथाविधि समाचरेत्। 

उपाकर्म तु कर्त्तव्यं श्रावण्यां श्रवणेन वा।

तथा

उपाकर्म प्रकुर्वन्ति क्रमात् सामर्ग्यजुर्विद:।

ग्रहसंक्रान्त्ययुक्तेषु हस्तश्रवणपर्वसु।।

शास्त्रों में द्विजातियों के लिए उपनयन संस्कार के बाद वेदारम्भ संस्कार अभिहित है। 

श्रावणी (उपाकर्म)पर दो कर्मों का प्राधान्य है। प्रथम उपाकरण अर्थात् उपाकर्म और दूसरा उत्सर्ग कर्म। पुराकाल में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही नूतन शैक्षिक सत्र पर वेदाध्ययन प्रारम्भ होता था और पौष - माघ में प्रचलित सत्र का अवसान भी। जो आजकल श्रावणी पर ही प्रतीकात्मक रूप से सम्पादित हो रहा है।

वर्षारम्भ पर वेदपाठ के उपक्रम में किया जाने वाला अनुष्ठान "उपाकर्म" कहलाता है। पारस्करगृहसूत्र...

अथातोऽध्यायोपाकर्म

और साढ़े छह या साढ़े सात माह बाद या पुनः उपाकर्म आने पर सत्रावसान स्वरूप दीक्षान्त समारोह उपाकर्म "उत्सर्ग" कहलाता था। पारस्करगृहसूत्र में पौष माघ में भी वेदोत्सर्ग कहा है।...

अर्धषष्ठान्मासानधीत्योत्सृजेयु:, अर्द्धसप्तमासान् वा।।

पूर्वमुपाकृतान् पुनरुपाकरणं यावन्नाधीयीरन्

और श्रावणी का संकल्प भी देखिए...

...वेदोत्सर्गोपाकर्माहं (वेदोत्सर्गोपाकरणं) करिष्ये

और श्रावणी के दिन वर्ष पर्यन्त कृत पापकर्मों की दोषनिवृत्ति या दोषमुक्ति के प्रायश्चित्त स्वरूप विशिष्ट स्नान का आदेश भी है।

उदकान्तं गत्वात् - नद्याद्युदकसमीपगमनात्। ततो यथाविधि स्नात्वा माध्याह्निकं कर्म.. निर्वर्त्य सप्तर्षिपूजावंशानुपठनान्तरं..तर्पयेयु:..समापयेयु:..।

पापकर्मों को त्यागना उनका प्रायश्चित करना भी उत्सर्ग ही है। संकल्प...

...अध्यायोत्सर्गकर्मनिमित्तं गणस्नानमहं करिष्ये‌

वैसे यहां "गणस्नान" शब्द "उत्सर्ग" के अर्थ में ही है...

गणस्नानशब्देनोत्सर्गाख्यं कर्म

जब प्रकृति में वनस्पतियों का प्रादुर्भाव हो, श्रावण मास में श्रवण नक्षत्रयुत पूर्णिमा हो, हस्त नक्षत्रयुत पंचमी हो तो उपाकर्म होता है। ऐसे आदेश हैं।-

अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां श्रवणेन तु।

हस्तेनौषधिभावे वा पंचम्यां श्रावणस्य तु।

ओषधीनां अपामार्गादीनां उत्पत्तौ सति...।


श्रावणी पूर्णिमा के दिन यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी कर्म शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।-

संक्रान्ति: ग्रहणं वापि पौर्णमास्यां यदा भवेत्। उपाकृतिस्तु पंचम्यां कार्या वाजसनेयिभि:।

अर्थात् वाजसेनेयी आदि सभी शाखा वालों को श्रावणी कर्म ग्रहण व संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं करना चाहिए। श्रावण शुक्ल पंचमी या ऋषि पंचमी  के दिन करने के निर्देश भी हैं।

कर्क सिंह संक्रान्ति में नदियां रजस्वला रहती है। श्रावणी आदि कर्म में रजस्वला दोष नहीं होता है। समुद्रगा में भी स्नान दोष नहीं होता है।...

उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रेतस्नाने तथैव च।

चन्द्रसूर्योपरागे च रजोदोषो न विद्यते।‌।

 शंका समाधान हेतु हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि, पुराण ग्रंथ, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु, जयसिंह कल्पद्रुम, संस्कार गणपति आदि धर्मग्रंथों में विस्तृत विवेचन हैं।


रक्षाबंधन भद्रा विशेष

भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।

भद्रा में दो कार्य नहीं करने चाहियें श्रावणी अर्थात् रक्षाबंधन, सूण पूजन और होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है और होली जलाने से नगर में आग संबंधित उपद्रव होते हैं। 

"तिथ्यर्धं करण:"  विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। पूर्णिमा की भद्रा नन्दिनी कहलाती है। एक माह में आठ बार विभिन्न तिथियों में भद्रा आती है। जिनके नन्दिनी आदि आठ नाम है। 

 शुक्ल पक्ष की भद्रा की "वृश्चिकी" और कृष्ण पक्ष की "सर्पिणी" संज्ञा है। शुभ कार्य में सर्पिणी का मुख और वृश्चिकी की पुच्छ त्याज्य है-

सर्पिण्यास्तु मुखं त्याज्यंं वृश्चिक्या: पुच्छमेव च

परन्तु रक्षाबंधन पर्व में भद्रा पूर्णतः त्याज्य है। उसका कोई भी परिहार ग्राह्य नहीं है।

रक्षाबंधन की पूर्णिमा में भद्रा मुख पुच्छ आदि ग्रहण करना मर्यादा के विरुद्ध है।

रक्षाबंधन श्रावण पूर्णिमा के दिन ही कर्तव्य है। इस दिन ग्रहण या संक्रांति हो तो भी इसी दिन भद्रा रहित काल में रक्षार्थ रक्षापोटलिका बांधनी और बंधवानी चाहिए।  

यदि पूरे दिन भद्रा हो तो रात्रि में प्रदोष काल में या भद्रा समाप्ति पर सभी रक्षाबंधन करें। रक्षाबंधन कर्म होलिका के समान सभी वर्णों के लिए कर्तव्य है।

सूर्यास्त के साथ निशामुख से तीन मुहुर्त अर्थात् स्थूल रुप से छः घटी पर्यन्त अर्थात् सूर्यास्त से अढ़ाई घंटे तक "प्रदोष काल" रहता है।     

अतः अपने अपने क्षेत्र के पंचांगों के अनुसार भद्रा समाप्ति पर ही 11 अगस्त को ही रक्षाबंधन करें।

श्रावणी द्विजमात्र का महानतम वैज्ञानिक एवं प्रकृतिपरक पर्व है। वेद, वेदवाणी, गुरु, सूर्य, गायत्री, देव, ऋषि और पितरों की आराधना और गुरु-शिष्य परम्परा का मुख्य आधार पर्व है। मूल रूप से गुरुकुलों की स्थापना मान्यता का पावन पर्व है। यह पर्व नद, नदी, जलस्त्रोत, वनस्पति और औषधि आदि के प्राकृतिक स्वरूप की पूजा का दिवस है। वर्षाऋतु में हरा चारा खाकर संपुष्ट हुई देशी गायों के उत्कृष्ट श्रेणी के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोमय को स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से ग्रहण करने का प्रारम्भिक दिवस है। 

श्रावणी व्यभिचारादिक पापकर्मों के प्रति भय पैदा कर पुनः पापकर्मो में संलिप्तता ना हो ऐसी जनजागृति का संकल्प दिवस भी है। जीवनमूल्यों के प्रति आबालवृद्ध को समर्पित करने का अद्भुत पर्व है। द्विजत्व की साधना को जीवन्त कर द्विजों को प्रकृष्ट प्रखर बनाने का अद्वितीय पर्व है। 

इस पर्व के प्रति प्राण-प्रण से समर्पित द्विजों का विशेष रूप से कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों का ब्रह्मत्व जाग्रत होता है और वे अद्भुत व्यक्तित्व के साथ अलौकिक ब्रह्मशक्ति के विशिष्ठ कृपा पात्र बन सकते हैं। यह पर्व मानव मात्र को विषयाशक्तियों में संलिप्तता से मुक्ति देने का अनुपम साधन है। मानव के आभ्यन्तर बाह्य चरित्र को पारिमार्जित करने का सुअवसर है।

श्रावणी उपाकर्म उपसर्ग में पापकर्मों की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित्त संकल्प (हेमाद्रि संकल्प) गणस्नान, संध्या, गायत्री-सूर्यपूजा, और वेदाध्ययन, स्वाध्याय के बाद अरुंधती, याज्ञवल्क्य, स्वगोत्र ऋषि पूजा के साथ सप्त ऋषिपूजन होता है। नूतन यज्ञोपवीतों का पूजन कर नवीन यज्ञोपवीत धारण कर ऋषि वंशादि का परिचय करवाया जाता है।

आजकल के  DNA शब्द को हमारे ऋषि-मुनियों ने "वंशानां ब्रुवणम्" के रूप में हज़ारों लाखों साल पहले ही परिभाषित कर दिया था। अर्थात् हम किस ऋषि की सन्तान है ऐसा परिभाषित करने के लिए ऋषि और ऋषियों की औरस संतानों की वंशावलियों का वाचन भी इस दिन किया जाता है।

मंत्रात्मक वंशावली का वाचन और श्रवण कर आत्म गौरव के साक्षात् दर्शन होते हैं। हम अभिभूत होते हैं कि हम अमुक ऋषि की संतान हैं। ऋषि वंशादि के श्रवण से स्वाभिमान का उदात्त भाव उन्नत भाल को और भी प्रकृष्ट बना देता है।

कुंडली से सम्बन्धित अन्य समस्याओं और उनके निराकरण हेतु संपर्क करें - पंडित राजेंद्र प्रसाद बेबनी

मोबाइल नंबर - 91 78953 06243

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