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उत्तराखण्ड की सृष्टि लखेड़ा की फिल्म एक था गांव को मिला नेशनल अवॉर्ड, राष्ट्रपति ने भी की तारीफ

उत्तर नारी डेस्क 

उत्तराखण्ड की बेटी सृष्टि लखेड़ा की फिल्म 'एक था गांव' को बेस्ट नॉन फीचर फिल्म का अवॉर्ड मिला है। मंगलवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सृष्टि लखेड़ा को पुरस्कार से नवाजा। सृष्टि ने इस फिल्म का प्रोडक्शन और निर्देशन किया है। बता दें, राजधानी दिल्ली के विज्ञान भवन में 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार समारोह का आयोजन किया गया। लगभग डेढ़ महीने पहले (24 अगस्त को) इन अवॉर्ड्स की घोषणा हो गई थी, अब उन्हें 17 अक्टूबर को पुरस्कार सौंपे गए। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने विजेताओं को प्रशस्ति पत्र और पदक प्रदान किए। 

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने संबोधन में कहा कि मुझे खुशी है कि महिला फिल्म निर्देशक सृष्टि लखेरा ने 'एक था गांव' नामक अपनी पुरस्कृत फिल्म में एक 80 साल की वृद्ध महिला की संघर्ष करने की क्षमता का चित्रण किया है। महिला चरित्रों के सहानुभूतिपूर्ण और कलात्मक चित्रण से समाज में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान में वृद्धि होगी।


बताते चलें, सृष्टि लखेड़ा उत्तराखण्ड के टिहरी जिले के कीर्तिनगर ब्लॉक के सेमला गांव निवासी है और एक फिल्म निर्माता हैं। सृष्टि ने ज्यादातर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण किया है। सृष्टि का परिवार ऋषिकेश में रहता है। सृष्टि के पिता बाल रोग विशेषज्ञ है। डॉ. केएन लखेरा ने बताया, सृष्टि करीब 13 साल से फिल्म लाइन के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। उत्तराखण्ड में पलायन की पीड़ा को देखते हुए सृष्टि ने यह फिल्म बनाई है। इस फिल्म की अवधि कुल 1 घंटे की है। 

जैसा कि फिल्म के नाम से ही पता लग रहा है फिल्म उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या, पलायन को दर्शा रही है। वह गांव जो कभी लोगों से आबाद हुआ करता था, अब पूरी तरह से सूना पड़ गया है। इस फिल्म में पहाड़ों की मौजूदा हकीकत और घोस्ट विलेज की कहानियों को दिखाया गया है। साथ ही इस फिल्म में पयायन और पहाड़ से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी दिखाया गया है। 


पलायन के मौजूदा हालातों को बयां करती फिल्म "एक था गांव" 

एक था गांव फिल्म एक बुजुर्ग और एक किशोर पर आधारित फिल्म है। इसमें पहाड़ की कठिनाइियों से साथ ही मौजूदा हालातों को बयां किया गया है। इसमें 80 वर्षीय लीला देवी और 19 वर्षीय गोलू मुख्य भूमिका में हैं। बुजुर्ग लीला गांव में अकेली रहती है। इसकी बेटी की शादी हो चुकी है, जो देहरादून जाने की जिद करती है। 

लीला इसके लिए तैयार नहीं होती। उसे अपने गांव से प्यार है। जिसके कारण वह यहां रहना चाहती है। वहीं, इस फिल्म का दूसरा किरदार गोलू पहाड़ों से निकलकर अपना जीवन जीना चाहती है। उसे पहाड़ों में कोई भविष्य नजर नहीं आता। जिसके कारण वह मैदानों की ओर जाना चाहती है। फिल्म में आखिर में लीला मजबूरी में देहरादून चली आती है। गोलू भी पढ़ाई के लिए मैदानों की ओर पहुंच जाती है, जिसके कारण गांव सूना हो जाता है। इस फिल्म के माध्यम से दिखाया गया कैसे कोई या तो मजबूरी में या फिर जरूरत के लिए पहाड़ से निकलता है। जिसके कारण पहाड़ दिनों दिन खाली हो रहे हैं। 

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