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कविता : पहाड़ की औरतें, कवि : सुभाष तराण

सुभाष तराण

पहाड़ की औरतें 

बारीश, गर्मी और सर्दी के साथ

सुबह सूरज को कंधे पर लाद कर 

भरी दोपहर को पार करते हुए 

पश्चिम के पहाड़ तक छोड़ आती हैं


पहाड़ की औरतें

पालतूओं का चारा-सानी कर  

साँझ के धुँधलके को

रसोई में बिठाती है 

एक टिमटिमाती ढिबरी के साथ

स्याह रात का आह्वान करती है 

और साथ रहती है उसके 

भोर होने तक  


पहाड़ की औरतें 

चूल्हे की आग में 

रंग में, राग में 

बाहर में, घर में

हिम्मत और डर मे 

देखी जा सकती है 

 

पहाड़ की औरतें 

खेत से, खलिहान से 

रसोई, दालान से 

आँधी से, तूफ़ान से 

दराती की सान से 

जूझते हुए दिख जाती है 


पहाड़ की औरतें 

पानी में पत्थर में 

लकड़ियों के गट्ठर मे 

कमरे के फर्श में 

स्नेह में, स्पर्श में 

महसूस हो जाती हैं। 


पहाड़ की औरतें 

गाँव के छुटपन में 

जंगल के यौवन मे

फागुन में, सावन में 

रस्ते में, आँगन में

खिलखिलाती हुई मिल जाती है। 


पहाड़ की औरतें 

जंगल की घास में

बदी में, उपहास में 

दिए गये दर्द में 

मौसमी मर्ज़ में 

नजर अंदाज़ नही की जा सकती


अपने आप में पहाड़ होती है 

पहाड़ की औरतें। 


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