उत्तर नारी डेस्क
प्राकृतिक सुंदरता अपनी गोद में समेटे उत्तराखण्ड की असली पहचान उसकी संस्कृति, रीति-रिवाज, पारंपरिक वाद्य यंत्रों और लोकगीतों में छिपी है। पौराणिक गाथाओं में भी हम वाद्यों को किसी – न – किसी रूप में पाते हैं; जैसे शिव का डमरू, कृष्ण की बंसी, विष्णु का शंख इत्यादि। लोकजीवन में भी आनन्द और उत्साह बढ़ाने में वाद्यों का सदैव ही प्रयोग होता आया है। नृत्य और गीत दोनों वाद्यों पर ही आधारित होते हैं। अत: लोकजीवन में इन कलाओं को सुरक्षित रखने में वाद्यों ने समुचित सहायता दी है। लोक संगीत में लोकवाद्य यंत्रों का प्रमुख स्थान रहा है या यूँ कहें कि उत्तराखण्ड पर्वतीय इलाकों के वाद्य यंत्र हों या उनसे निकलने वाला संगीत, दोनों बेहद विशिष्ट हैं।
इसी क्रम में आज हम आपको मांगलिक कार्यों और मेलों आदि अवसरों पर बजाई जाने वाली नागफणी के बारे में बताएंगे। जो कि अब विलुप्तता की कगार पर है और अपनी अंतिम सांसे गिन रही हैं।
उत्तराखण्ड के अधिकांश लोक वाद्य आज या तो लुप्त होने को हैं या लुप्त हो चुके हैं। नागफणी उत्तराखण्ड का एक ऐसा ही लोक वाद्य यंत्र है जो अब लुप्त हो चुका है। पहाड़ की नई पीढ़ी ने तो कभी इसका नाम भी नहीं सुना होगा।
नागफणी- नागफणी काँसे और धातु से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। शिव को समर्पित यह कुमाऊं का एक महत्वपूर्ण लोक वाद्य यंत्र है, जिसका प्रयोग पहले धार्मिक समारोह के अतिरिक्त सामाजिक समारोह में भी खूब किया जाता था। लगभग डेढ़ मीटर लम्बे इस लोक वाद्य में चार मोड़ होते हैं, कुछ नागफणी में यह चारों मोड़ पतली तार से बंधे होते थे। नागफणी का आगे का हिस्सा या सांप (snake) के मुंह की तरह का बना होता है, इसी कारण इसे नागफणी कहा जाता है।
वहीं, नागफणी को बजाने के लिये बेहद कुशल वादक चाहिये। कहा जाता है कि तांत्रिक साधना करने वाले लोग आज भी इस नागफणी वाद्ययंत्र का प्रयोग करते हैं। मध्यकाल में नागफणी का इस्तेमाल युद्ध के समय अपनी सेना के सैनिकों में जोश भरने के लिये भी किया जाता था। बाद में नागफणी का इस्तेमाल मेहमानों के स्वागत में किया जाने लगा। विवाह के दौरान भी इस वाद्य यंत्र का खूब प्रयोग किया जाता था।
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गुजरात और राजस्थान का भी धार्मिक वाद्य यंत्र था नागफणी
उत्तराखण्ड के अतिरिक्त नागफणी गुजरात और राजस्थान में भी बजाया जाता है। राजस्थान में नागफणी सर्पिल घंटियों सहित एक काँसे की नली सी होती है। जिसमें साँप के फन के आकार की घंटी जिसमें धातु की (जीह्वा) लटकन लगी होती है, चमकीले रंगों से रंगी। शोभायात्रा के भाग के रूप में धार्मिक और सामाजिक समारोहों में इसका उपयोग किया जाता है।
गुजरात में एक बेलनाकार काँसे की नली जिसमें नाग की तरह मुड़ी हुई डंडी और नाग के फन के आकार वाली घंटी जुड़ी होती है। एक खुला मुँह का छेद होता है। अनुष्ठानिक सामाजिक समारोहों और उत्सवों में इसका उपयोग किया जाता है।
परन्तु अब दोनों ही राज्यों में भी इस वाद्य यंत्र की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। अब इस वाद्ययंत्र को बजाने वालों की संख्या नहीं के बराबर है, इसलिए अब कोई इसे बनाता भी नहीं है। हां पुराने संग्रहालयों में नागफणी आज भी देखने को जरूर मिल जाता है।
एक वक़्त था। जब लोक वाद्य कभी हमारे पहाड़ की जीवन शैली का अंग हुआ करते थे। लेकिन धीरे धीरे इन वाद्ययंत्रों का प्रयोग करने वाले कलाकारों का मोह इससे छूटता गया। इसका एक प्रमुख कारण वादकों के परिवार में रोजी रोटी का संकट खड़ा होना था। सरकारों ने लोकविधाओं, लोक कलाकारों, लोक वाद्यों को आगे बढ़ाने, उन्हें संरक्षित करने को प्रयास नहीं किया। नतीजतन कलाकार अपनी विधाओं और कला से दूर होते चले गए और धीरे-धीरे यह लोक वाद्ययंत्र विलुप्त हो गए।
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