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देवभूमि उत्तराखण्ड की मिठाई अरसे का इतिहास व बनाने की विधि, पढ़ें

उत्तर नारी डेस्क


पहाड़ों में बनाई जाने वाली इस मिठाई की खुशबू को देखकर सभी का मन इसका स्वाद चखने के लिए आकर्षित हो जाता है, जी हां हम बात कर रहे हैं पहाड़ी मिठाई "अरसे" की। खुशबू की महक से भरपूर यह पहाड़ की मिठाई उत्तराखण्ड गढ़वाल का एक बहुत ही खास पहाड़ी पकवान है जिसे पहाड़ों में त्योहारों की शुरूआत हो या कोई शुभ कार्य या शादी समारोह में जरुर बनाये जाते हैं, कहीं भी रिश्ते में जाना हो या लड़कियों ने मायके से ससुराल जाना हो तो 'अरसों के साथ रोटने बनाकर भी भेजे जाते है, यूं तो अरसे हर गांव में बनाये जाते हैं लेकिन अब इसका स्वाद चखने के लिए अनेक कस्बों में स्वरोजगार को अपनाते हुए "अरसे" बनाये जा रहे हैं। 


पहाड़ी संस्कृति की पहचान है 'अरसे' (अरसे बनाने की विधि)

कस्बे में बनाये जाने वाले अरसों की महक अब शहरों तक पहुंच गई है, लोकल से वोकल की ओर इन अरसों ने अब अलग ही पहचान बना ली है। इसी क्रम में अब हम आपको अरसे बनाने की विधि बताते हैं। अरसे तैयार करने की विधि काफी आसान है। तो आइये आज जानते हैं कि कैसे घर पर आसानी से अरसे तैयार किये जा सकते हैं। सबसे पहले चावलों के एक दिन पहले पानी में भिगो कर रखा जाता है। फिर सुखाने के बाद मशीन में डाल कर पिसाई करने के बाद कड़ाही में गुड़ का घोल तैयार करने के बाद चावल का आटा मिलाया जाता है। इसके बाद चूल्हे पर कढ़ाई में तेल डाल कर गरम किया जाता है। तेल की कड़ाही में अरसे डालकर थोड़ी देर पकने के बाद छलनी से निकाल दिए जाते हैं। अरसे को तेल में इसलिए तला जाता है जिस से अरसा जल्दी खराब नहीं हो और काफी समय तक इसे रखा जा सके। स्वाद को बढ़िया बनाने के लिए चावल का आटा गुड़ की चासनी में मिलाने के बाद सफेद तिल मिलाते हैं, इस तरह से उत्तराखण्ड गढ़वाल की पहाड़ी मिठाई अरसे बनकर तैयार हो जाती है। आज पहाड़ की इस स्वादिष्ट मिठाई अरसे की लोकप्रियता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि शहरों में मिठाई की दुकानों पर अरसा 150 से 300 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। जिसे बहुत लोग खरीद रहें हैं।


अरसे का इतिहास 

आपको बताते चलें कि अरसे का इतिहास भी काफी धार्मिक है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि जगतगुरू शंकराचार्य जी ने बद्रीनाथ मंदिर और केदारनाथ  मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अलावा गढ़वाल क्षेत्र में बहुत सारे ऐसे मंदिर हैं, जिनका निर्माण शंकराचार्य ने ही करवाया था। इन मंदिरों के पुजारी दक्षिण भारत के ब्राह्मण होते हैं। माना जाता है कि नवीं सदी में दक्षिण भारत के ये ब्राह्मण गढ़वाल क्षेत्र में अरसालु लेकर आए थे। क्योंकि अरसे काफी समय तक खराब नहीं होते, तो सभी ब्राह्मण पोटली भरकर अरसालु यहाँ लाया करते थे और फिर स्थानीय लोगों ने इन ब्राह्मणों से ही अरसे बनाने की कला सीखी। गढ़वाल में आज अरसालु को अरसा नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार नवीं सदी के बाद से अरसा गढ़वाल का एक प्रमुख मिष्ठान है। इस अनुसार अरसे का इतिहास लगभग 1100 साल पुराना है।

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