शीतल बहुखण्डी
उत्तराखण्ड की संस्कृति, लोक कला, वेशभूषा, उत्सव, मेले और त्यौहार इन सब की अपनी एक विशेषता है। इस विशेषता के कारण ही आपको हर जगह अलग अलग परम्परा और संस्कृति की छाप देखने को मिलती है। इस विशेषता के कारण ही देवभूमि उत्तराखण्ड भारत में अपनी एक अलग जगह बनाता है और लोगों को इस संस्कृति की ओर लुभाता और आकर्षित करता है।
उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में पहने जाने वाली एक खास तरह की ओढ़नी भी कुछ ऐसी ही है। जो कि कुमाऊँ क्षेत्र की जीवन शैली के साथ ही वहां की प्रजातीय समुदाय की विशिष्ट संस्कृति को भी दर्शाता है।
"पिछौड़ा" उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला एक प्रमुख रंगीला पारंपरिक परिधान है, जिसे सुहागिन स्त्रियां या महिलाओं द्वारा विशेष धार्मिक, मांगलिक एवं सामाजिक उत्सवों में पहना जाता है। जो कि कुमाऊनी अंचल की बेहद खास लोकसंस्कृति है। ये दुपट्टा एक ओढ़नी की तरह होती है जिसे शादी-शुदा महिलाओं द्वारा ओढ़ा जाता है और उत्तराखण्ड में औरतों के सौभाग्य की निशानी माना जाता है।
आपको बता दें कुमाऊँ क्षेत्र में पिछौड़ा यानि दुपट्टा शादी-शुदा महिलाओं का एक विशेष परिधान है। यह उनकी सम्पन्नता, उर्वरता और पारिवारिक ख़ुशी का दर्शाता है। पहली बार "पिछौड़ा" किसी भी लड़की को शादी के वक्त ही पहनाया या दिया जाता है। या यूँ कहें कि विवाह के समय ही दुल्हन के माता-पिता अपनी बेटी को इस पिछौड़े को देते हैं और अपनी पुत्री को ये पिछौड़ा पहना कर ही विदा करते हैं। पिछौड़ा कुमाऊँ क्षेत्र में महिला के लिए पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। कई परिवारों में इसे विवाह के अवसर पर वधुपक्ष या फिर वर पक्ष द्वारा प्रदान किया जाता है।
पारम्परिक रूप से रंगवाली पिछौड़ा हस्त-निर्मित होता है। इनके निर्माण में केवल दो रंग सुर्ख लाल व केसरिया ही प्रयुक्त होते हैं क्योंकि भारतीय सभ्यता में इन दोनों रंगों को मांगलिक माना गया है। चटख पीले रंग का पिछौड़े के बीच में लाल रंग से ऐपण का डिजाईन बना होता है। ऐपण के इस डिजाईन के साथ-साथ पिछौड़ा में स्वस्तिक और ओम चिन्ह भी बनाये जाते हैं। “ओम” पूरी दुनिया को एक छोटे से चिन्ह में दर्शाता है। तो वहीं स्वास्तिक विश्व में शांति और मित्रता के लिए जाना जाता है।
यह भी पढ़ें - उत्तराखण्ड की महिलाओं को शीर्ष से लेकर पांव तक यह आभूषण करते हैं सुशोभित
प्राचीन काल में पिछौड़ा घर पर ही बनाया जाता था। जहां सबसे पहले सफ़ेद मलमल या वायल कपड़ा लिया जाता था फिर उसे गहरे पीले रंग में रंगा जाता था। पीले रंग में रंगने के लिए महिलाएं किलमौड़े के जड़ को पीसकर या फिर हल्दी का इस्तेमाल कर उसे पीले रंग में रंगती थी और फिर लाल रंग तैयार करने का काम करती थी। जहां लाल रंग बनाने के लिए कच्ची हल्दी में नींबू निचोड़कर, सुहागा डालकर तांबे के बर्तन में रखा जाता था फिर इस सामग्री को नींबू के रस में पकाया जाता था। जिसके बाद पीले कपड़े पर इस लाल रंग से डिज़ायन बनाने का काम शुरु होता था। जहां महिलायें सिक्के पर कपड़ा लपेट कर रंगाकन करती थी और डिज़ायन बनाने के लिए चारों वृत्त-खण्डों (क्वाड्रंट्स) पर क्रमशः सूर्य, शंख, घंटी एवं लक्ष्मी को उकेरा जाता था और स्वस्तिक के मध्य में ॐ आलेखित किया जाता था। यह पूरा रंगाई और छपाई का कार्य महिलाएं स्वयं घर पर ही करती थी। परन्तु बदलते समयानुसार यह प्रचलन अब कम देखा जाता है। महिलाएं अब बाजारों से बना बनाया पिछौड़ा ले लेती हैं। लेकिन हाथ से बने पिछौड़े का आकर्षण आज भी इतना अधिक है कि अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ़ जैसे पर्वतीय जनपदों के अलावा दिल्ली, मुंबई लख़नऊ में भी इसकी खरीदारी भारी मात्रा में की जाती है।
कहते हैं कि पिछौड़े का लाल रंग वैवाहिक संयुक्तता का, अग्नि के दाह का, स्वास्थ्य तथा सम्पन्नता का प्रतीक है जबकि सुनहरा पीला रंग भौतिक जगत की मुख्य धारा को दर्शाता है।
उत्तराखण्ड में महिलाओं के लिए पिछौड़ा का महत्व ठीक वैसा ही है जैसे पंजाबी महिलाओं को चूड़ा, बंगाली महिलाओं को शाखा और पोला और लद्दाख की महिलाओं को पेराख देता है। जो कि उत्तराखण्ड की महिलाओं के लिए उनके सुहाग की निशानी के तौर पर होती है।
यह भी पढ़ें - देवभूमि के इस रहस्यमय मंदिर में "महाशिव" का जलाभिषेक कर गायब हो जाती है जलधारा, जानिए मंदिर से जुड़े रहस्य