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देवभूमि उत्तराखण्ड के वो गांव जहां नहीं खेली जाती है होली, पढ़ें पूरी कहानी

उत्तर नारी डेस्क 

देशभर में होली का उल्लास शुरू हो गया है। होली नजदीक आते ही नगर के बाजारों में जगह-जगह रंग-गुलाल, पिचकारी, रंग बिरंगे गुब्बारों और लजीज पापड़ व अन्य पकवानों की दुकानें सजने लगी हैं। लोग भी पर्व की तैयारी में जुटने लगे हैं, जिससे बाजारों में रौनक है। इस बार 8 मार्च को होली मनाई जाएगी। वहीं, उत्तराखण्ड के कुमाउं और गढ़वाल में भी होली का रंग जम रहा है। लेकिन क्या आप जानते हैं उत्तराखण्ड के कुछ गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया जाता है। होली के दिन भी इन गांवों के लोगों की दिनचर्या सामान्य ही रहती है। प्रदेश के अलकनंदा और मंदाक‍िनी के संगम पर बसा रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि ब्लॉक की तल्ला नागपुर पट्टी के क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव में विगत 374 वर्षों से इस उत्साह से कोसों दूर हैं। यहां न कोई होल्यार आता है और न ग्रामीण एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। होली न मनाने के पीछे लोक मान्यता और विश्वास है। जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सभी ने संजोए रखा है। 

अब आप इसे अंधविश्वास कहें या अपनी कुलदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी के प्रति ग्रामीणों की आस्था, लेकिन सच यह है कि इन तीन गांवों के लोग 15 पीढ़ियों से अपने विश्वास पर कायम हैं। गौरतलब है कि रुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय से करीब 20 किमी दूर बसे क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव को करीब 350 साल पूर्व बसाया गया था। यहां के ग्रामीणों का मानना हैं कि जम्मू-कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार अपने यजमान और काश्तकारों के साथ वर्षो पूर्व यहां आकर बस गए थे। ये लोग, तब अपनी ईष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति भी लाए थे, जिसे गांव में स्थापित किया गया। मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन माना जाता है। इसके अलावा तीन गांवों के क्षेत्रपाल देवता भेल देव को भी यहां पूजा जाता है। 

ग्रामीण कहते हैं कि उनकी कुलदेवी और ईष्टदेव भेल देव को होली का हुड़दंग और रंग पसंद नहीं है, इसलिए वे लोग सदियों से होली का त्योहार नहीं मनाते हैं। कुछ लोग बताते हैं कि 150 साल पहले इन गांवों में होली खेली गई थी, तब गांव में हैजा जैसी बीमारियों ने तांडव मचाया। जिसके बाद कई लोगों को अकाल मौत का भी शिकार होना पड़ा, तब से आज तक गांवों में होली नहीं खेली गई। इसे लोग देवी का कोप मानते हैं।

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