शीतल बहुखण्डी
उत्तराखण्ड में दीपावली के 11 दिन बाद एक अनूठे अंदाज में इगास बग्वाल मनाने की परंपरा है। पहाड़ मे दीपावली को आम भाषा मे बग्वाल कहा जाता है, जबकि बग्वाल के 11 दिन बाद एक और दीपावली मनाई जाती है, जिसे इगास कहते हैं। यह पर्व पहाड़ की लोक संस्कृति को प्रदर्शित करता है। साथ ही इगास पर्व के दिन देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और घरों की साफ-सफाई के बाद मीठे पकवान बनाए जाते हैं। इसमें दीयों और पटाखों की जगह पर भैला खेला जाता है, जो कि एक पारंपरिक रिवाज है।
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श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर ग्रामीणों ने खुशी मनायी
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था और इस दिन को दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद यानी कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए ग्यारह दिन बाद दीपावली का त्योहार एकादशी को उत्सव के रूप में मनाया। जिसके लिए सभी ग्रामीणों ने मिलकर भैलो बनाया।
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भैलो एक प्रकार की मशाल होती है, जिसे नृत्य के दौरान ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर घुमाया जाता है। यह ग्रामीणों द्वारा अपनी खुशी जाहिर करने का एक तरीका है। क्यूंकि पहले के जमाने में पटाखों का प्रयोग नहीं किया जाता था। इसलिए सभी ग्रामीण शाम के वक्त गांव के किसी खाली खेत अथवा खलिहान में जाकर भगवान राम के बनवास के बाद अयोध्या पहुंचने पर खुशी में भैलो नृत्य खेलते है।
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इगास बग्वाल के दिन लकड़ी और बेल से बनाया भैला
बता दें भैलो मजबूत हरी बेल नुमा टहनियों पर बारिक कई लकड़ी बांधकर बनाया जाता है। भैलो का युवाओं व धियाणियों में विशेष क्रेज होता है। इसको बनाने के लिए लोग दो-तीन दिन पहले जंगलों से लीसायुक्त लकड़ी लाकर उसे बारीक स्टीक की तरह चीर कर फिर उसे बेल नुमा टहनियों पर बांध देते हैं।
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दीपावली के दिन शाम को स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैलो का तिलक करते है। फिर खाना खाने के बाद गांव के पास के खेतों में जाकर उसके दोनों छोरों में आग लगाकर अपने शरीर के आस पास घुमाते हुए सामूहिक नाच गाना करते हैं। गांव की सुख समृद्धि की कामना कर दीपावली मनाते है।
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